इमाम हुसैन की विलादत,फ़ज़ीलत और शहादत पर एक नज़र

इमाम हुसैन की विलादत,फ़ज़ीलत और शहादत पर एक नज़र



हज़रत अली(रज़ि) ने फ़रमाया, मैं पहला इन्सान हूँ ,जो निदाये रिसालत की तरफ मुतावज्जेह हुआ,आवाज़ सुनते ही उसे क़ुबूल कर लिया और पैग़म्बर ए इस्लाम के अलावा मुझसे पहले किसी ने नमाज़ नही पढ़ी। मैं अपने खुदा पर मुकम्मल एतकाद व ईमान रखता हूँ और अपने मज़हब में कोई शक व तरद्दुद नहीं रखता। ऐसी पाक शख्सियत हज़रत अली(रज़ि)और सय्यदा फ़ात्मा ज़हरा(रज़ि) के घराने, जिसमें इस्लाम सबसे पहले आया, उस पाक घराने में आप की पैदाइश हुई। इस घराने के मरतबे का अंदाज़ा इस शेर से लगाया जा सकता है।


किया हो बयां सीरत तेरी किया तेरी अज़मत,


 काबे में विलादत हुई मस्जिद में शहादत।


अरब में उस वक़्त हज़रत अली का घराना सबसे मोहज़्ज़ब और सीरत में सबसे पाक दामन माना जाता था। ये घराना हक़गोई और ईमानदारी के लिए मशहूर था। ऐसे बुलंद मरतबे वाले घराने में हज़रत इमाम हुसैन(रज़ि) की पैदाइश शाबान की तीन तारीख 4 हिजरी को मदीने मुनव्वरा में हुई। खाकी मरहूम के इस शेर से तारीख की तस्दीक इस तरह होती है।


तीसरी शाबान की आई चरागआं देखये, 


हुस्ने ईमां हो रहा है फिर नुमाया देखये, 


गोद में खातूने जन्नत की है पारा नूर का,


 चादरे ततहीर में लिपटा है क़ुरआन देखये।


हज़रत इमाम हुसैन(रज़ि)की विलादत की ख़बर सुनकर पैग़म्बरे इस्लाम ख़ुश होकर अपनी बेटी सय्यदा ज़हरा(रज़ि)के घर तशरीफ़ लाये।अस्मां,जो इस घर में एक कनीज़ थीं, इमाम हुसैन(रज़ि) को हुज़ूर के पास सफ़ेद कपड़े में लपेटकर लायीं।आपने अपने नूरे नज़र को गोद में लिया और दाहिने कान में अज़ान, बाएं कान में अक़ामत कही। विलादत के सातवें दिन अक़ीका किया गया। सात दिन


 तक हज़रत जिबराइल अलैहिस्सलाम दूसरे फरिश्तों के साथ आते और मुबारकबाद पेश करते रहे। इस सिलसिले में मतीन अमरोहवी ने एक इस्तक़बालिया शेर कहा है।


हुसैन इब्ने अली आये हम इस्तक़बाल करते हैं,


 ज़माना रक़्स फ़रमाये हम इस्तक़बाल करते हैं,


 भारी है गोद ज़हरा की खुदा ने अपनी क़ुदरत से,


फ़रिश्ते पालना लाये हम इस्तक़बाल करते हैं।


सलसाईल एक आली मरतबे वाले फ़रिश्ते का नाम है। जो हुक्मे खुदा में ताम्मुल की वजह से सज़ा के तौर पर उसके बाल व पर उखाड़ कर एक जज़ीरे में फेंक दिया गया था। जिस शब इमाम हुसैन(रज़ि) पैदा हुए और फ़रिश्ते आसमान से मुबारकबाद के वास्ते ज़मीन पर आये तो उस जज़ीरे से उनका गुज़र हुआ। सलसाईल ने पूछा तुम कहाँ जारहे हो, मलाइका ने जवाब दिया, आज फ़र्ज़नदे रसूल पैदा हुए हैं, हुक्मे खुदा से हम मुबारकबाद पेश करने के लिए जारहे हैं। सलसाईल ने कहा, ए फरिश्तो ,मैं तुमेह खुदा और रसूलेपाक का वास्ता देता हूँ , मुझे भी अपने परों पर उठाकर ले चलो कि उनके फ़र्ज़न्द की बरकत से मेरी ख़ता माफ हो जाये। चुनाँचे फरिश्ते सलसाईल को उठाकर खिदमते रसूलेपाक में लेकर हाज़िर हुऐ, तेहनियत के बाद सलसाईल की कैफ़यत बयान की। आँहज़रत ये सुनकर अपनी बेटी सय्यदा फ़ात्मा ज़हरा के घर तशरीफ़ लाये और फ़रमाया मेरे फ़र्ज़न्द हूसैन को लेकर आओ, रसूले अकरम ने इमाम हुसैन(रज़ि) को गोद में लेकर अल्लाह रब्बुलिज़्ज़त से दुआ की, ए परवरदिगार , मेरे इस फ़रज़न्द के सदके में सलसाईल की लग़ज़िश को माफ़ करदे , उसे दुबारा बाल व पर अता करदे , और उसको मलायका मुक़ररेबीन में शामिल करके उसको अपना पुराना मर्तबा बहाल कर दे। ये दुआ इमाम हुसैन के सदके में क़ुबूल हुई और सलसाईल इन ही फ़रिश्तों के साथ फिर अपने मक़ाम पर पहुंच गया और दौराने परवाज़ तमाम मलायका से आगे आगे उड़ कर कहता जाता था,मुझ जैसा कौन है ,मैं तो इमाम हुसैन का आज़ाद करदा ग़ुलाम हूँ।


हज़रत सलमान फ़ारसी(रज़ि) से रिवायत है कि मैं ने पैग़म्बरे इस्लाम को देखा कि वो इमाम हुसैन(रज़ि) को अपनी जनों पर बिठाकर पियार करते हुए फरमा रहे हैं कि,"बेटा तुम इमाम हो, इमाम के बेटे हो और नौ इमामों के बाप हो, जो तुम्हारी नस्ल से होंगे, उनमें आख़री इमाम, इमाम मेहदी होंगे।"आगे फरमाते हैं,"हुसैन मिन्नी व अनामिनल हुसैन, यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से हूँ"। ये बात तो समझ में आसानी से आती है कि हुसैन मुझसे से हैं,लेकिन मैं हुसैन से हूँ। इसको अहले इल्म ही समझ सकते हैं। क्योंकि ये फ़रमाते हुए उनकी नज़र सन 61 हिजरी में होने वाले कर्बला के सानेह पर थी। वो अपने नवासों से इतनी मौहब्बत फ़रमाते थे कि कभी कभी नमाज़ की हालत में हसनैन करीमैन पीठ पर चढ़ जाया करते थे तो कभी ज़ानों पर बैठ जाया करते थे, तो हुज़ूर उनकी वजह से सजदा लंबा कर दिया करते थे ताकि उनको कोई तकलीफ़ ना पहुँचे, वो जानते थे कि इन से इस्लाम को ज़िंदा करने के लिए कर्बला के मैदान में बहुत बड़ा काम लिया जाना है।


मेरा हुसैन बाग़ ए नबूवत का फूल है,


हैदर की इसमें जान ज़हरा का खून है,


मांग लो इनके दर से जो कुछ भी दिल करे,


मालिक सभी जहान की आले रसूल है।


क़ुरआन ए करीम के 30 वें पारे की सूरत अलकौसर में इरशादे बारी है,"फसल्लेले रब्बे का वन हर" इसका मतलब है,"नमाज़ क़ायम करो और क़ुरबानी दो"। इसकी रौशनी में अगर इमाम हुसैन की ज़िंदगी पर नज़र डालें तो -  


किया जो ग़ौर फसल्ली पर और वनहर पर,


 नज़र ठहर गयी मेरी हुसैन के सर पर, 


शाऊरे अंतामुल आलौना बाँटने के लिए, 


सरे हुसैन सफ़र कर रहा है खंजर पर।


अगर डेमोकिरेसी के निज़ाम पर नज़र डालें तो पता चलता है कि यह भी इमाम हुसैन(रज़ि) की ही देन है। यज़ीद सिर्फ उनसे अपने हाथ पर बैअत(वोट लेना) करने को कहता था। करबला का इतना बड़ा सानेहा सिर्फ़ एक वोट के लिए हुआ था। इस से हमें अपने एक वोट की अहमियत का पता चलता है। यज़ीद से कोई मालो दौलत, जायदाद, मुल्कगीरी की लड़ाई नहीं थी। यज़ीद का किरदार अच्छा नहीं था, इस लिए यज़ीद को एक वोट देना मुनासिब नहीं समझा, आज हम अपने वोट का इस्तेमाल कितने ग़ैरज़िम्मेदार तऱीके से करते हैं, इसके लिए हमें भी सोचना चाहिये। इस मौके पर मुझे "नुसरत मेहदी"का ये शेर याद आरहा है।


हक़ परस्तों की जहाँ रॉयशुमारी होगी


सबसे पहली वहां आवाज़ हमारी होगी


इमाम हुसैन और यज़ीद के फ़लसफ़े में फ़र्क़ इतना है कि यज़ीद बरबरियत,ख़यानत,ज़ुल्मो जबर और जफ़ा का नाम है। इमाम हुसैन(रज़ि) इंसानियत, अमानत, अदलो सब्र,


 वफ़ा, अमन और तक़वाओ ईसार का नाम है। आज दुनिया में कोई भी इंसान अपने बच्चे का नाम यज़ीद रखने की सोच भी नहीं सकता।


आंखों में जागता है ग़म हुसैन का।


सीने में सांस लेता है मातम हुसैन का।


मिट्टी में मिल गये हैं इरादे यज़ीद के।


लहरा रहा है आज भी परचम हुसैन का।


दीन के मुनाफ़िक़ कुछ ज़ालिम लोगों ने मोहसिने इंसानियत, हक़गोई व हकपरस्ती के अलंबरदार,मुजस्समाये ताक़वाओ , इसार,मोहसिन इस्लाम को बरबरियत से उनके 72 साथियों के साथ तीन दिन भूखा पियासा रखकर कर्बला के चटियल मैदान में शहीद कर दिया गया। यज़ीद ज़ाहिरी जीत के बाद भी हार गया और हुसैन शहीद होने के बाद हमेशा के लिए ज़िंदाबाद हो गये।


क़त्ले हुसैन असल में मरगे यज़ीद है।


इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद।।


आज पूरी दुनियां में हर जगह इमाम हुसैन(रज़ि) के ताक़वाओ इसार की खुशबू चारों तरफ़ फैली हुई है और क़यामत तक ये सिलसिला जारी रहेगा लेकिन ज़ुल्मो सितम व बरबरियत करने वालों का नामोनिशान तक बाक़ी नहीं रहा। ऐसे लोगों पर हमेशा लानत मलामत ही होती रहेगी।


जिनको रसूलेपाक ने सूँघा था बार बार।


फैली है कुल जहां में निकहत हुसैन की।।


 


मुहम्मद इरफान (पूर्व प्रधानाचार्य) 


जे,एल,एम,इ, का, कुन्दरकी 


मुरादाबाद


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